जिहाद के विरुद्ध हिंदू संघर्ष की गाथा – कश्मीर इतिहास
सबसे पहले बता दू की यह लेख किसी भी धर्म या जाति का अनादर करने के लिए नहीं है। हमारे लिए सभी धर्म एक है और इस सभी से ऊचा हिंदुस्तान हैं – मेरा राष्ट्र। बस हिंदुस्तान का एहसान लिख रहा हूँ एक हिन्दू की नजर से ।
बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक का कश्मीर। भारत का कश्मीर। मस्जिदों से गूंजते ज़हरीले नारे, कालशनिकोव की गोलीयो से क्षत-विक्षत शव, खंडित-विखंडित मंदिर और आर्य सारस्वत हिन्दुओ का व्यापक पलायन!!!
क्या यह पलायन सिर्फ हिन्दुओ का था ?
या था उस प्राचीन कश्मीरी संस्कृति का भी, जिसे हम भारतीय सभ्यता का अविभाज्य अंग मानते हैं।
क्या वह ऐतिहासिक रूप से पृथक घटना थी?
या था अंतिम चरण उस मूल कश्मीरी-भारतीय सभ्यता और कट्टर इस्लामिक एकदेववाद के सघर्ष का, जो भारत में इस्लाम के आगमन से होता आ रहा है??
Writer 🙂 लेख YouTuber निशांत चंद्रवंशी के द्वारा लिखा गया है।
जिहाद के विरुद्ध हिंदू संघर्ष की गाथा – कश्मीर
भारतीय सीमा में कश्मीर का क्षेत्रीय एकीकरण तो 70 वर्ष पूर्व ही हो चुका है। राजनेताओ की माने तो वे ‘पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर’ के लिए ‘जान भी दे देने’ के लिए तत्पर है !!!
परन्तु यह तो स्पष्ट ही है कि भारतीय कश्मीर का भी ‘क्षेत्रीय एकीकरण’ भारी भरकम सैन्य बल के दम पर ही है, जिसके हटते ही इस तथाकथित एकीकरण का नीर-क्षीर हो जाएगा।
अपेक्षित विजय श्री भारतीय-राज्य के पक्ष में जाती तो नहीं दिखती। शास्त्रों में कश्मीर भूमि को ज्ञान की देवी सरस्वती का निवास स्थान बताया गया है।
!!नमस्ते शारदे देवी काश्मीरपुरवासिनि त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि मे!!
जिहाद के विरुद्ध हिंदू संघर्ष की गाथा – कश्मीर
अपनी पौराणिक महत्वता को सार्थक करते हुए, कश्मीर की धरा प्राचीन काल से अभिनवगुप्त, पाणिनि आदि विद्वानों की भूमि रही है जिन्होंने संपूर्ण भारत्वर्ष को अपने ज्ञान से दीप्तिमान किया।
चक्राकार हिमाच्छादित पर्वत शृंखला से घिरे कश्मीर घाटी में पुष्पित-पल्लवित हुई वास्तुकला, ज्ञान-विज्ञान तथा दर्शन परम्पराओं को भारतीय सभ्यता का मेरुदंड कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा।
सूक्ष्म अल्पसंख्यक आर्य सारस्वत ब्राह्मण कश्मीर घाटी में प्राचीन भारतीय परंपरा के अंतिम-अंश थे।
उनके हिंसक विस्थापन का वास्तविक उत्तरदायित्व भारतीय राज्य की कापुरुषता पर है, जो कश्मीर की क्षेत्रीय और सभ्यतागत-सांस्कृतक एकीकरण में भेद न कर सकी।
न की प्रचलित मिथ्याचार की 1990 में जिहाद का प्रतिकार किये बिना, कायर पंडितों ने कश्मीर तज दिया !!!!
सत्य तो यह है की शताब्दियों से हिन्दुओ ने महान बलिदान देकर कश्मीर में इस्लामीकरण का यथासंभव प्रतिकार कर, धर्म-सभ्यता की रक्षा की है। आइये इस प्रतिरोध के इतिहास की गूढ़ विवेचना करते हैं।
जिहाद के विरुद्ध हिंदू संघर्ष की गाथा – कश्मीर
ग्यारहवीं शताब्दी, सोमनाथ ज्योतिर्लिंग को खंडित करने के लिए कुख्यात महमूद ग़ज़नवी ने अपनी विशाल सेना लेकर जब तोशामैदान दर्रे से कश्मीर में प्रवेश करने का दुस्साहस किया, तब राजा संग्रामराज ने ग़ज़नवी की सेना की गति को, एक नहीं दो बार, पीरपंजाल के लोहरकोट दुर्ग पर ही निषिद्ध कर, निवर्तन करने के लिए विवश कर दिया।
राजा संग्रामराज – लोहार वंश के संस्थापक, जिन्होंने 1003 से 1028 ई तक कश्मीर पर शासन किया, जिनके राज्य का विस्तार पीर पंजाल पर्वत श्रृंखला तक था।
कश्मीर में इस्लामिक शासन किसी साहसिक सैन्य अभियान का परिणाम नही था, अपितु 1339 ई में राज-दरबार में किये गए षड्यंत्र और हत्याओ का परिणाम था कि शाहमीर राज सिंहासन पर सज्ज हुआ।
विविध विजातीय संग्रचना वाले कश्मीरी समाज को आने वाली विपत्ति का कहाँ भान था?
शनै शनै समय बीतता गया, और शाहमीर की वंशावली बढ़ने के साथ मुसलमान शासको ने अपने मूल क्रूर स्वरुप का रहस्योद्घाटन किया।
हिन्दुओ पर अपमानजनक निषेध लगाए गए, जिनमे अपने मृतको को अग्नि स्पर्श करा कर अंतिम संस्कार करने की अनुमति तक नही थी।
जिहाद के विरुद्ध हिंदू संघर्ष की गाथा – कश्मीर
मंदिरो को खंडित कर, उनपर मस्जिद लाद दी गयी। मुसलमान यात्रिओं के लिए मंदिर पंथागार में परिवर्तित कर दिए गए।
हिन्दू- विद्रोह का दमन, हर वह अमानवीय यातना देकर किया गया जिसके लिए इस्लामी शासक कुख्यात रहे है।
उस प्रतिकूल समय में पंडित निर्मल कंठ ने विवशता में बने मुसलमानो को पुनः हिन्दू धर्म मे दीक्षित करने का अभियान चलाया।
अप्रत्याशित सफलता मिलने के कारण, निर्मल कंठ नव हिन्दू संगठन का केंद्र बने। नव धर्मान्तरित मुसलमान न केवल मूल हिन्दू धर्म में पुनः प्रविष्ट हुए, बल्कि कुरान पर आसीन होकर मूर्ति पूजन किया।
काफिरो की यह धृष्टता देखकर उलेमा क्रोधित तथा हतप्रभ थे, शिया शासक काजी चक ने समीप आ रहे आशूरा के दिनों में पंडित निर्मल कंठ समेत 800 कश्मीरी हिन्दुओ का बर्बरता से नरसंहार कर घाटी को रक्तरंजित कर दिया।
उन्नीस्वी शताब्दी के आरम्भ में अफगान सुबेदार अजीम खान राक्षसी प्रवित्ति से कश्मीर पर राज्य कर रहा था।
स्वराज्य ही कुत्सित इस्लामिक विधर्मिता से मुक्ति का मार्ग था और पंजाब में स्वराज्य स्थापित हो चुका था।
अज़ीम खान की अभेद्य निगरानी को चकमा देकर पंडित बीरबल धर, कश्मीर से सुरक्षित बच निकले और महाराजा रणजीत सिंह के राजदरबार में उपस्थित हुए।
जिहाद के विरुद्ध हिंदू संघर्ष की गाथा – कश्मीर
कश्मीर में सैन्य अभियान अत्यंत दुर्गम होने के कारण महाराजा रणजीत सिंह कुछ हतबल दिखे, लेकिन पंडित बीरबल ने अपनी वाक्पटुता एवं सामरिक ज्ञान से महाराजा को प्रभावित कर, सैन्य अभियान के लिए स्वीकृति प्राप्त की।
बीरबल धर को इस साहस का मूल्य अपनी पत्नी और साथिओ की क्रूर हत्या से चुकाना पड़ा।
सिख-डोगरा ने अफगानी पठानों को बाहर खदेड़ा और इस विजय उत्सव को कश्मीरी हिन्दूओ ने तीन दिवस तक मनाया।
एक अंतहीन कालावधि के बाद कश्मीर में जजिया, उपनयन का अपमान, धर्मान्तरण, तथा गौवंश हत्या प्रभावी रूप से रुकी।
1846 में सत्ता डोगरा राजाओ के हाथ आई, जिन्होंने बिखरे हुए छोटे-छोटे राज्यों को मिलाकर ‘जम्मू-कश्मीर’ राज्य को मूर्त रूप दिया।
और मठ-मंदिर, संस्कृत पाठशाला का निर्माण कर हिन्दू मूल्यों का पुनः संचार किया।
कदाचित ये कश्मीर में हुए आखिरी सभ्यतगत निर्माण थे, स्वतंत्रता के उपरांत ऐसे प्रयास तो हुए ही नहीं ।
1940 के दशक में भारतीय राजनीति अत्यंत परिवर्तनशील थी। जहाँ एक ओर शरीया लोलुप शेख अब्दुल्ला अपनी राजनीतिक उच्चाकांक्षा को पोषित कर रहे थे, वही कश्मीरी हिन्दू नेता जैसे शिवनारायण फोतेदार भारत में पूर्ण विलय तथा लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए संघर्षरत थे।
पर जवाहरलाल नेहरू की सांस्कृतिक दृष्टि बाधित थी, शेख अब्दुल्ला की तुष्टिकरण हेतु अनुच्छेद 370 निष्पादित कर दिया गया।
स्वतंत्र भारत में हिन्दू राष्ट्रवाद संख्याबल के सहारे ही जीवित है। अनुच्छेद 370 ने हिन्दू बहुसंख्या के लाभ को ही पंगु बना दिया, जब कि 1754 में पंडित महानंद धर ने घाटी की मूल संस्कृति के संरक्षण हेतु जनसंख्या को हिंदुओं के पक्ष में झुकाने का प्रयास किया था।
हां, ये पंडित महानंद धर की दूरदर्शिता थी की उन्होंने पंजाबी हिन्दुओ को घाटी में बसने के लिए प्रेरित किया।
शेख अब्दुल्ला को जनसांख्यिकी के महत्व का भान था कदाचित इसीलिए उन्होंने धारा 370 में ऐसी व्यवस्था की, कि भारत के अन्य नागरिक कश्मीर में ना बस सके।
और जनसंख्या हमेशा मुसलमानो के पक्ष में रहे!!
घाटी में हिन्दुओ के अल्पसंख्यक होने के दुष्परिणाम आने में समय नहीं लगा। आजकल के प्रचलित शब्द में कहे तो ‘लव जिहाद’ की पहली घटना 1967 में आयी जब परमेश्वरि नामक पंडित कन्या का ग़ुलाम रसूल ने अपहरण कर लिया।
लड़की की विधवा माँ की स्थानीय पुलिस अथवा सरकार ने एक न सुनी। हिन्दू समुदाय अपनी स्त्रियों की रक्षा के लिए भारी संख्या में सड़को पर उतरा।
मौलवियों ने व्यवस्थित मिथ्याभाषण और छल-बल से बहुसंख्यक उग्र-इस्लामिक भीड़ को हिन्दुओ के विरुद्ध कर दिया।
पुलिस शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे हिन्दुओं पर लाठी डंडे बरसाने लगी।
स्त्रीओ के साथ अभद्रता की गई और चिन्हित करके हिन्दू दुकानें लूट का निशाना बनाई गई।
अनेक हत्याएँ हुई और हिन्दुओं के पार्थिव शरीर नालों से निकाले गए। कानून व्यवस्था बिगड़ती देख केंद्रीय मंत्री भी घाटी पहुचे।
अंततः आंदोलन के हिन्दू नेताओ को नेपथ्य में शांत करा दिया गया।
परमेश्वरी के साथ जो घटित हुआ वो 1990 में आने वाली विपत्ति की झांकी मात्र था।
भारत सरकार की कश्मीरी हिन्दुओ के प्रति उदासीनता का प्रत्यक्ष प्रमाण हम आतंकवाद, पथराव और मृत आतंकीयो की अंत्येष्टि पर जुटने वाली उग्र उन्मादी भीड़ के रूप में देखते है।
आज भी भारतीय राज्य क्षेत्रीय राष्ट्रवाद और क्षेत्रीय एकीकरण के स्वप्न लिए चिरनिद्रा में विलीन है।
- क्या इस क्षेत्रीय राष्ट्रवाद की नीतिगत क्रियान्वयन भर से मार्तण्ड सूर्य मंदिर का जीर्णोद्धार संभव है?
- क्या हिन्दू कभी डल झील पर सूर्य देव को अर्घ्य दे सकेंगे?
- क्या कश्मीर का आकाश मंत्रोउच्चारण से गुंजायमान हो सकेगा?
एकदेववाद और हिन्दू-धर्म सभ्यता के इस युद्ध में , मध्यकाल से कश्मीरी हिन्दुओ ने क्षेत्र ही नहीं
अपितु हिन्दू धर्म को राष्ट्र की धुरी मान कर संघर्ष किया है, आधुनिक काल में भारतीय राज्य को निर्णायक विजयश्री प्राप्त करने के लिए क्षेत्रीय राष्ट्रवाद त्याग कर हिन्दू सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का वरण करना अनिवार्य होगा।